विशेष :

प्रभु हमारे हृदय में रमण करें

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ओ3म् सोम रारन्धि नो हृदि गावो न यवसेष्वा।
मर्य इव स्व ओक्ये ॥ ऋग्वेद 1.91.13॥

शब्दार्थ- सोम = हे सोमस्वरूप प्रभो ! नः = हमारे हृदि = हृदय में रारन्धि रा-रम् = बारम्बार रमण कीजिए। यवसेषु = जौ जैसे हरे चारे में गावः न = जैसे गौएं आ = अच्छा, सुखद अनुभव करती हैं। मर्यः = भौतिक शरीर रखने वाला मरणशील मनुष्य स्वे ओक्ये = अपने घर में इव = जैसे अपनापन, आश्‍वासन अनुभव करता है, निमग्न हो जाता है।

व्याख्या- वेद ने परमात्मा के विविध गुणों, कर्मों, स्वभावों का परिचय कराने के लिए उसको अनेक नामों से पुकारा है। इन्हीं में से एक नाम इस मन्त्र में सोम है। ये सारे नाम अपने-अपने प्रकृति-प्रत्यय के आधार पर प्रकाश्य अर्थ को अभिव्यक्त करते हैं।

सोम शब्द षूञ् (अभिषवे, प्रेरणे, प्रसवैश्‍वर्ययोः) धातु से बनता है। अभिषवन परिपाक की पद्धति से प्रकट होना, सामने आना, संसार की उत्पत्ति, प्रेरणा का प्रकटाव भी जहाँ सोम का वाच्य है, वहाँ निचोड़, परिपाक पर प्रकट होने वाला सारभूत रस, जूस भी सोम कहलाता है। प्रसन्नता व शीतलता देना सोम की विशेष पहचान है। चिकित्सा के क्षेत्र में औषधियों का रस अनेक क्षेत्रीय निर्माण प्रक्रियाओं से सामने आता है। अब गन्ने का रस बहुत ही सामान्य हो गया है। धीरे-धीरे सामान्य या विशेष फलों का रस प्रचलित हो रहा है। रस, जूस का अपना विशेष स्वाद, लाभ प्रत्यक्ष है।

विविध क्षेत्रों में अभिषवन से सामने आने वाला सोम अपनी प्रकरणगत आनन्द की अनुभूति से आह्लादित करता है। व्यवहार्य वस्तुओं की तरह भौतिक देवों के लिए भी सोम शब्द अभिहित होता है। जैसे कि सोम चन्द्रमा के लिए भी प्रयुक्त होता है। चन्द्रमा के दर्शन से प्रतीत होने वाली शीतलता, स्निग्धता, चान्दनी की आह्लादकता सर्वजनगम्य है। पूर्णमासी के चान्द का समुद्र की लहरों पर प्रभाव पर्याप्त प्रसिद्ध है।

हमारे शरीरों में खाए-पीए के परिपाक से सप्तम धातु के रूप में अभिव्यक्त होने वाला वीर्य भी क्वचित् सोम नाम से अभिहित हुआ है, जो हमारे कार्यों, सामर्थ्यों को निमित्त बनता है। अनेक स्थलों पर अन्य रसों से विशिष्ट आनन्द, मस्ती, एकाग्रता देने वाला भक्तिरस भी सोम शब्द से स्मरण किया गया है। यहाँ मन्त्र में सोम से हृदय में बारम्बार रमण की प्रार्थना है। हृदय का भौतिक वस्तुओं की अपेक्षा भावना से विशेष मन्त्र में इस स्थिति को स्पष्ट करने के लिए दो उपमायें आई हैं। इन दृष्टान्तों का फलितार्थ आह्लादकपन है। वह तभी चरितार्थ होता है, जब बिना बाधा के एकाग्रतापूर्वक, निश्‍चिन्त होकर सेवन का अधिकार प्राप्त होता है। अतः योगशास्त्र निर्दिष्ट समाधि= एकाग्रता, भक्ति यहाँ विशेष रूप से सोम शब्द द्वारा अभिप्रेत है। अतः सोम शब्द प्रभु, सार, चन्द्र, एकाग्रता आदि का वाचक है।

भावतरंग- हे प्रभो! आप ही सोरे संसार के सार हो। क्योंकि आप सदा एक रस, अटल रूप में नित्य रहते हो। हे सर्वशक्तिमान्! जहाँ आप अपने कार्यों में सर्वथा स्वावलम्बी हो, वहाँ आपके सहारे, कारण से इस संसार का जन्म, पालन, व्यवस्थापन होता है।

हे सर्वव्यापक! आप अपनी सत्ता से इस ब्रह्माण्ड के कण-कण, अणु-अणु में भरपूर हो। इसके साथ हृदय में जीवन के साथ गहरे मित्र, हितचिन्तक के रूप में विराजमान हो। अतः आप हमारे हृदय में हमारे साथ बसते हुए रमणीय आनन्द की अनुभूति कराओ। जैसे चन्द्रमा अपनी शीतलता, स्निग्धता, आह्लादकता का अनुभव कराता है। यथा समुद्र की लहरें पौर्णमासी को चन्द्रमा से प्रभावित होती हैं। ऐसे ही हम अपने जीवन व्यवहार में आपकी अनुभूति से अभिभूत हों।

हे प्रभो! आपके प्राकृति जगत में प्राकृतिक व्यवस्था से प्रभावित होकर गौवें जब अपने पसन्द के हरे चारे को प्राप्त करती हैं, तब वे अपनी प्रसन्नता, रुचि प्रकट करती हैं और चाहती हैं कि बिना रोक-टोक, निश्‍चिन्तता से सेवन का अवसर मिले। ऐसे ही हे आनन्दधाम! हमें आपकी समीपता से एकाग्रतापूर्वक समाधि की सिद्धि हो।

हे व्यवस्थाओं के व्यवस्थापक! जैसे एक आत्मा भौतिक शरीर से सम्पक्त होकर अपनी इहलौकिक तथा पारलौकिक प्रगति को साधने में समर्थ होता है। उसको शरीर उसके आवास का आधार, विविध चेष्टायें करने का आश्रयस्थल होता है। जिसका प्रत्यक्ष रूप हम अपने भवनों में अनुभव करते हैं। ऐसे ही हे सर्वरक्षक ! हम आपके सानिध्य में निर्भय, सुरक्षा, संचेतना अनुभव करें।

विशेष- मन्त्र में आया ओक्ये शब्द भवनों का वाचक है। चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम् (न्यायदर्शन 1.1.11) अर्थात् जैसे शरीर हमारे शरीर द्वारा होने वाली विविध प्रकार की चेष्टाओं का साधन होता है। शरीरस्थ इन्द्रियों तथा इन्द्रियों के विषयों का आश्रय स्थल होता है। ऐसे ही हमारे घर शरीर से भी अधिक प्रत्यक्ष रूप में सर्दी-गर्मी-वर्षा से बचाव, बहुत सारी बाधाओं से छुटकारा, विविध भयों, आक्रमणों से सुरक्षा दिलाते हैं। इसके साथ भवन ओक, ओट, ढाल की तरह भी काम करते हैं। अपने घर में तो कुत्ता भी शेर होता है, यह कहावत सिद्ध करती है कि किसी का घर उसमें बल, भरोसा भर देता है। ऐसे ही किसी का घर उसके कब, कहाँ होने के ज्ञान का भी निश्‍चय कराने का भी आधार होता है। बहुतों के घर उनका कार्यस्थल भी होते हैं। तभी तो होम, हाऊस, स्टोर, हॉल आदि शब्द स्वीट, मैडिकल, पतंग, किरियाना आदि के साथ प्रयुक्त होकर अनेक भावों को दर्शाते हैं। अतः अपने आवास स्थलों की तरह आपको अपना सम्बल, भरोसा, आश्रय, अवलम्बन, सखा, सर्वस्व चरितार्थ करें।

विशेष विचार्य- मन्त्र में इन दोनों उपमा वाक्यों में प्राकृतिक जगत के तथ्यों को दर्शाया गया है। ये तथ्य सार्वदेशिक-सार्वकालिक-सार्वजनिक भावनाओं को अभिव्यक्त करते हैं जैसे कि जल-वायु आदि प्राकृतिक तत्त्व हैं। इस प्रकार के सहस्रशः वेद मन्त्रों में इव, न, यथा-तथा जैसे शब्दों से संयुक्त उपमा वाक्यों द्वारा विविध प्राकृतिक सचाईयों को संकेतित किया गया है। इस सबसे महर्षि दयानन्द सरस्वती की यह धारणा प्रतिपादित, पुष्ट, प्रमाणित होती है कि वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। इन मन्त्रों के अर्थ में खींच-तान का भी प्रश्‍न नहीं उठाया जा सकता है। (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) वेद कथा - 1-1 | गौरवशाली भारत | मेरा प्यारा भारत देश | अखंड भारत निर्माता आचार्य चाणक्य | जय हिन्द


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