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श्रीकृष्ण का ही जन्मोत्सव क्यों?

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महाभारत काल में भीष्म पितामह सभी के श्रद्धास्पद थे। आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत के कारण वह इतिहास में अमर हैं। युद्ध कौशल में वह अप्रतिम थे। शान्ति पर्व के अन्तर्गत दिया गया उनका उपदेश उनके बौद्धिक उत्कर्ष का साक्षी है। किन्तु फिर भी उनका जन्मदिन नहीं मनाया जाता। क्यों? उनका ब्रह्मचर्य व्रत परिस्थिति विशेष का परिणाम था। न वह स्वतः स्फूर्त्त था और न उसका कोई लक्ष्य या प्रयोजन था। एक कामुक पिता की वासनापूर्ति में सहायक होना ही उसका एक मात्र उद्देश्य था। युद्ध में वह अपराजेय थे। किन्तु वह लड़े तो किसके लिये? यह जानते हुए भी कि कौरव अन्याकारी हैं, फिर भी भीष्म उन्हीं की ओर से लड़े... अन्याय की रक्षा के लिये। जब उनसे इसका कारण पूछा गया तो ‘अर्थस्य पुरुषो दासः’ कहकर अपनी विवशता का कारण बता चुप हो गये। इस दृष्टि से वह अहमदाबाद के पुलिस कमिश्‍नर से अच्छे नहीं थे। 1948 में जब महात्मा गान्धी की हत्या हुई तो ‘संघ वालों ने मारा है’ इस अफवाह के कारण संघ के प्रति जनता का आक्रोश उमड़ पड़ा। आर्यसमाज अहमदाबाद के बाहर एक बोर्ड लगा था जिस पर ‘आर्य वीर संघ’ लिखा था। संघ शब्द देखते ही लोगों ने वहाँ आग लगा दी। सार्वदेशिक सभा के संयुक्त मन्त्री के नाते मैं वहाँ गया और वहाँ के पुलिस कमिश्‍नर से भेंट की। बातचीत के दौरान पुलिस कमिश्‍नर ने कहा- “आत्मा या अन्तःकरण की बात हम नहीं जानते। उचित-अनुचित पर विचार करना हमारा काम नहीं है। जिसकी नौकरी करते हैं उसका हुकुम बजाते हैं। नमक हलाल करते हैं।’’ पुलिस कमिश्‍नर ने जो कुछ कहा वही तो भीष्म पितामह ने कहा था।
अन्त समय में दिये गये उपदेश के सम्बन्ध में ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की उक्ति चरितार्थ होती है। भरी सभा में द्रोपदी का जो अपमान हुआ, उस दृश्य को जो व्यक्ति चुपचाप देखता रहा, उसके विषय में इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती कि वह घर का बड़ा-बूढ़ा था या उसमें ब्रह्मचर्य का तेज था या उसकी भुजाओं में बल था या उसे धर्माधर्म या कर्त्तव्याकर्त्तव्य का ज्ञान था। ऐसे व्यक्ति का जन्मदिन कौन मनायेगा?
उस समय के एक दूसरे महापुरुष थे महर्षि वेदव्यास। गीता के सामने सारा संसार नतमस्तक है। किन्तु वह तो महाभारत का अंशमात्र है। सम्पूर्ण महाभारत और वेदान्तदर्शन के रचयिता वेदव्यास की बुद्धि का कौन पार पा सकता है? किन्तु उन बेचारों की सुनता कौन था? ‘ऊर्ध्वबाहुः विरौम्येष न हि कश्‍चित् शृणोति माम्’ व्यास के इन शब्दों में कितनी बेबसी, कितनी वेदना है। व्यास ने जो कुछ कहा, बहुत अच्छा कहा। किन्तु जो कुछ किया उस पर कौन गर्व कर सकता है? तत्कालीन समाज द्वारा उपेक्षित ऐसे व्यक्ति का जन्मदिन आज कौन मनाने बैठेगा ?
युधिष्ठिर धर्मराज थे, धर्मपुत्र थे। जीवन में कभी झूठ नहीं बोला, बस एक बार परिस्थितिवश कुछ कह बैठे थे। सो उसका भी उन्हें दण्ड मिला। भले इतने थे कि मान-अपमान को भूलकर सदा समझौता करने को तैयार रहते थे। ऐसे धर्मपुत्र में एक ही दोष था। जुआ खेलने के एक दोष ने उन्हें कहीं का नहीं छोड़ा। इसके कारण उन्हीं को नहीं पूरे परिवार को वर्षों भटकते रहना पड़ा। जो व्यक्ति जुए में अपनी पत्नी तक को दांव पर लगा दे उस तथाकथित धर्मपुत्र का जन्मदिन कौन भला आदमी मनायेगा?
ये सभी क्षत्रिय थे। उन बड़ों के बीच एक ब्राह्मण थे- द्रोणाचार्य। समाज व्यवस्था में ब्राह्मण का सर्वोपरि स्थान है, किन्तु ब्राह्मणोचित गुणों के कारण। विद्या सीखने के लिये विद्यार्थी गुरु के पास जाया करते थे। गुरुजन विद्यार्थियों के घर पर जाकर नहीं पढ़ाते थे। द्रोणाचार्य पहले व्यक्ति थे जिन्होंने राजाश्रित होकर ट्यूटर (वैतनिक शिक्षक) के तौर पर शिष्यों के घर पर रहकर पढ़ाने का उपक्रम किया। आजकल के अध्यापकों की तरह छात्रों के प्रति पक्षपातपूर्ण व्यवहार की प्रवृत्ति उनमें पाई जाती थी। एकलव्य के प्रति उनका व्यवहार सर्वविदित है। इस प्रकार द्रोणाचार्य ने ब्राह्मणोचित धर्म का उल्लंघन तो किया ही, गुरु के गौरवपूर्ण पद को भी कलंकित किया। परिणामतः भीष्म की तरह वह भी सब प्रकार के अन्याय के प्रति उदासीन रहे। इतना ही नहीं, समय आने पर अन्याय की रक्षा करने में प्रवृत्त हुए।
ऐसी विषम परिस्थिति में श्री कृष्ण के रूप में एक ऐसा व्यक्तित्व उभरकर आया जो ‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्’ के लिए कृतसंकल्प था। जिसकी भुजाओं में बल था और मस्तिष्क में दूर तक सोचने का सामर्थ्य। जिसके माता-पिता को उसके जन्म से पहले कारागार में डाल दिया गया हो, वह जन्म से ही विद्रोही और क्रान्तिकारी क्यों नहीं बनता? इसलिये श्रीकृष्ण ने जहाँ भी पाप होते देखा-सुना वहीं उसका दमन करने दौड़े गए। एक-एक करके कितने ही अत्याचारियों का संहार किया और अन्त में कुरुक्षेत्र के मैदान में ‘सर्वं वै पूर्ण स्वाहा’ कर समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बान्धकर शान्ति की स्थापना की। 1857 के भारत के तत्कालीन स्वाधीनता संग्राम के सन्दर्भ में श्रीकृष्ण के सामर्थ्य का स्मरण करते हुए वेदों के पनुरुद्धारक महर्षि दयानन्द सरस्वती ने लिखा है- “जो श्रीकृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके (अंग्रेजों के) धुर्रे उड़ा देता और ये भागते फिरते।’’
स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश में महर्षि दयानन्द ने लिखा है- “मनुष्य उसी को कहना कि मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं किन्तु अपने सर्वसामर्थ्य से धर्मात्माओं की चाहे वे अनाथ और निर्बल क्यों न हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण सदा किया करें तथा अधर्मी चाहे चक्रवर्ती सनाथ और महा बलवान भी हो, तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करें। अर्थात् जहाँ तक हो सके वहाँ तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल को उन्नति सर्वथा किया करें।’’
महर्षि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत मनुष्यता की इस कसौटी पर श्रीकृष्ण पूरी तरह खरे उतरते हैं। वह जीवन भर न्याय की रक्षा के लिए अन्यायकारियों से संघर्ष करते रहे। मनुष्य स्वभाव से स्वार्थी है। जो उसके काम आता है, वह उसे कृतज्ञतापूर्वक स्मरण करता है। श्रीकृष्ण के समकालीन बड़े-बड़े लोगों में सभी अपने लिये जिये और अपने लिये मरे। श्रीकृष्ण औरों, धर्मात्माओं, दीन-दुःखियों, पीड़ितों के लिये जिये और उन्हीं के लिये लड़ते-लड़ते मर गये। इसीलिए समाज व राष्ट्र आज भी उन्हें स्मरण करते हुए प्रतिवर्ष उनका जन्मोत्सव मनाता है।
आजकल राजनेताओं का दो प्रकार का जीवन होता है। सार्वजनिक जीवन, (Public Life) अलग और व्यक्तिगत जीवन (Private Life) अलग। सार्वजनिक जीवन में आदर्श प्रतीत होने वालों नेताओं के भीतर झांककर देखने पर उनसे घृणा हो जाती है। श्रीकृष्ण के व्यक्तिगत जीवन के विषय में महर्षि दयानन्द सरस्वती ने लिखा है-
“श्रीकृष्ण का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है। उनका गुण कर्म स्वभाव और चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है। जिसमें कोई अधर्म का आचरण श्रीकृष्ण जी ने जन्म से मरण पर्यन्त बुरा काम कुछ भी किया हो, ऐसा नहीं लिखा।’’
जिस दयानन्द के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि उन्होंने किसी को लांछित किये बिना नहीं छोड़ा, उनके द्वारा श्रीकृष्ण को इतना बढ़िया प्रमाण पत्र देना अपने आपमें कितना महत्वपूर्ण है। महाभारत काल में ऐसा महान् व्यक्ति अन्य कोई नहीं हुआ। इसलिए श्रीकृष्ण का ही जन्मोत्सव मनाया जाता है, अन्य किसी का नहीं। - स्वामी विद्यानन्द सरस्वती

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