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सुखस्य मूलं धर्मः

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The Basic Religion of Happiness is

सुख का मूल धर्म है- चाणक्यसूत्र का यह पहला सूत्र है। इसमें दो शब्द आये हैं- धर्म और सुख। धर्म को सुख का मूल क्यों कहा है, यह तभी समझ में आ सकता है, जब यह मालूम हो जाये कि धर्म क्या है। यह ऐसा विषय है जिसकी विस्तृत विवेचना की जाये तो सैकड़ों-हजारों पृष्ठ लिखे जा सकते हैं।

‘धर्म’ शब्द प्राचीन भारत के ऋषियों की अनुपम देन है और इसके जोड़ का शब्द संसार की किसी भी भाषा में नहीं मिलता। आजकल इस शब्द का प्रयोग अंग्रेजी के रिलीजन शब्द के पर्याय के रूप में होने लगा है- जैसे हिन्दू धर्म, जैन धर्म, बौद्ध धर्म, यहूदी धर्म, ईसाई धर्म इत्यादि। परन्तु इनमें से किसी को धर्म शब्द से अभिहित नहीं किया जा सकता। ये सब दर्शन, मत, सम्प्रदाय, पन्थ अथवा मजहब हैं। धर्म का मत-मतान्तर में विभाजन या विखण्डन नहीं किया जा सकता। धर्म वह तत्व है, जो सारी मनुष्य जाति पर समान रूप से लागू होता है।

आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्।
धर्मों हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीनाः पशुभिः समानाः॥

भोजन, निद्रा, भय और मैथुन ये पशुओं और मनुष्यों की स्वाभाविक वृत्तियां हैं। परन्तु धर्म मनुष्यों की विशेष प्रवृत्ति है, जो पशुओं में नहीं होती। धर्म से हीन मनुष्य पशुओं के समान होते हैं। गीता में योगेश्‍वर श्रीकृष्ण ने कहा है-
यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म बढने लगता है, तब-तब मैं जन्म लिया करता हूँ।

महाभारत काल में भी हमारे देशों में मत-मतान्तर थे, जिनमें वैदिक-धर्म तथा श्रमण-धर्म मुख्य थे। किन्तु जब जगत् में अन्याय, अनीति, दुराचार आदि बढ जाते हैं, तब इनको मिटाने के लिए कोई तेजस्वी महापुरुष समाज की बिगड़ी हुई व्यवस्था को सुधारता है। इसलिए धर्म शब्द का अर्थ बहुत विस्तृत तथा व्यापक है। इसमें दर्शन, नीति, आचार, व्यवहार, कर्त्तव्य आदि का समावेश हो जाता है।

यह शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से व्युत्पन्न है जिसका अर्थ है धारण करना। ‘धृ’ धातु में ‘मन्’ या ‘म’ प्रत्यय लगाने से धर्म शब्द बनता है। जो धारण करता है अथवा जो धारण किया जाता है वह धर्म है। प्रत्येक वस्तु को उसका स्वभाव धारण करता है। इसलिए किसी वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म होता है।

धारणाद्धर्ममित्याहुः धर्मों धारयते प्रजाः।
यत्स्याद्धारण संयुक्तं स धर्म इति निश्‍चयः॥

धारण को ही धर्म कहते हैं। जिससे सब प्रजा का धारण होता है वही धर्म है। यह श्‍लोक महाभारत का है। महाभारत के अन्त में कहा है-
ऊर्ध्वबाहुर्विरौम्येषः न च कश्‍चित् शृणोति माम्।
धर्मादर्थश्‍च कामश्‍च सः धर्मः किं न सेव्यते॥

मैं भुजा उठाकर चिल्ला रहा हूँ, पर कोई नहीं सुनता। धर्म से ही अर्थ और काम की प्राप्ति होती है, ऐसे धर्म का आचरण क्यों नहीं करते? इससे सिद्ध होता है कि धर्म की जो कल्पना भारतीय तत्त्वदर्शियों ने की है, वह सारे मतभेदों से ऊपर है।

जैमिनी के मीमांसादर्शन का पहला सूत्र है- अथातो धर्मजिज्ञासा। अर्थात् धर्म के सम्बन्ध में जिज्ञासा इस दर्शन का हेतु है। इसी को स्पष्ट करने के लिए दूसरा सूत्र है- चोदनालक्षणो अर्थों धर्मः अर्थात् प्रेरणा धर्म का लक्षण और अर्थ है। इसका तात्पर्य यह है कि जब तक कोई अधिकारी पुरुष यह न कहे कि अमुक कर्म करना चाहिए, अथवा न करना चाहिए तब तक मनुष्यों में स्वच्छन्दता रहती है। इसलिए आदिकाल में ऋषियों ने कर्म और अकर्म के जो आदेश दिये, उन्हीं से धर्म का निर्माण हुआ।

ऋषियों ने वेद के माध्यम से धर्म का निर्माण किया, इसका तात्पर्य यह है कि प्रारम्भिक अवस्था में अर्थात् सृष्टि के आदिकाल में सामान्य मनुष्यों को कर्म-अकर्म, कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य इत्यादि का ज्ञान नहीं था। इसे व्यवस्थित करने के लिए ऋषियों ने धर्म की व्यवस्था स्थापित की। वैदिक मान्यता के अनुसार वेदोऽखिलो धर्ममूलम् अर्थात् सब धर्मों का मूल वेद में है। वेद को अपौरुषेय माना गया है। ऋषियों को ऋतम्भरा प्रज्ञा अथवा अन्तर्ज्ञान से जो ईश्‍वरीय प्रेरणा हुई। उससे उन्होंने वेद का साक्षात्कार किया। ‘ऋषयो मन्त्रद्रष्टार’- इस सूत्र का यही अर्थ है।

वेद को प्रमाण मानकर कालान्तर में दर्शनशास्त्रों तथा स्मृतिशास्त्रों की रचना हुई, जिनमें धर्म के तत्त्वों, लक्षणों आदि की विस्तार से विवेचना की गयी। कणाद के ‘वैशेषिक दर्शन’ में धर्म की यह परिभाषा है- यतो अभ्युदयनिः श्रेयससिद्धिः सः धर्मः। अर्थात् जिससे इस जीवन में अभ्युदय और भावी जीवन में मोक्ष की सिद्धि हो, वह धर्म है। दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि भौतिक तथा आध्यात्मिक उन्नति, जिससे सिद्ध होती है वह धर्म है। अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति धर्मानुसार आचारण से होती है।

परन्तु वे कर्म अथवा कर्त्तव्य कौन से हैं जिनसे यह उद्देश्य प्राप्त हो। वैदिक परम्परा में मनु सबसे पहले स्मृतिकार हैं और उनकी ‘मनुस्मृति’ मानवधर्मशास्त्र कहलाती है। मनुस्मृति भृगु ऋषि की रचना है, अर्थात् मनु के जो आदेश और उपदेश अत्यन्त प्राचीनकाल से जाने-माने जाते थे, उनका भृगु ने संकलन करके श्‍लोकबद्ध किया । मनुस्मृति में धर्म की यह व्याख्या है-
अहिंसा सत्यमस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
एतं सामासिकं धर्मं चातुर्वर्ण्ये ब्रवीन्मनुः॥

चारों वर्णों के लिये मनु ने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, शौच तथा इन्द्रिय-निग्रह ये सामान्य धर्म बताये हैं। मनुस्मृति में धर्म के लक्षण ये हैं-
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षात् धर्मस्य लक्षणम्॥
धृति क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीः विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥

वेद, स्मृति, सदाचार तथा अपने को जो प्रिय लगे- ये धर्म के साक्षात् लक्षण हैं। धैर्य, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रिय-निग्रह, बुद्धि, विद्या, सत्य, अक्रोध- ये धर्म के दस लक्षण हैं।

श्रमण धर्म वैदिक धर्म के समान ही प्राचीन है। जैन आगमों के अनुसार अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह ये पांच महाव्रत हैं।

पातंजल योगसूत्र में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह को यम कहा गया है। धर्म के लक्षणों के विषय में भी वैदिक तथा जैन मान्यताओं में साम्य है।

इससे प्रकट होता है धर्म की जो व्यख्या भारतीय ऋषियों ने की है, वह सार्वभौम और सार्वकालिक है। धर्म का यह मूल परिवर्तन देश, काल तथा परिस्थितियों में भी अपरिवर्तनीय रहता है। - डॉ. महावीर प्रसाद (दिव्ययुग- अक्टूबर 2018)

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