विशेष :

धन चक्रवत घूमता है

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Money Rotates Cyclically

ओ3म् पृणीयादिन्नाधमानाय तव्यान्
द्राघीयांसमनु पश्येत पन्थाम्।
ओ हि वर्तन्ने रथ्येव चक्राऽन्यमन्यमुप तिष्ठन्त रायः॥ (ऋग्वेद 10.117.5)

शब्दार्थ- (तव्यान्) धनवान् को (नाधमानाय) दुखी, पीड़ित, याचक के लिए (पृणीयात् इत्) देना ही चाहिए। मनुष्य (द्राघीयांसम् पन्थाम्) अतिदीर्घ जीवन के मार्ग को (अनुपश्येत) विचारपूर्वक देखे (हि) क्योंकि (रायः) धन (उ) निश्‍चय ही (रथ्या चक्रा इव) रथ के पहिए के समान (आ वर्तन्ते) घूमते रहते हैं और (अन्यम् अन्यम्) एक-दूसरे के समीप (उपतिष्ठन्त) पहुँचा करते हैं।

भावार्थ- लक्ष्मी बड़ी चञ्चला है। यह रथ के पहियों की भाँति निरन्तर घूमती रहती है। आज एक व्यक्ति के पास है तो कल दूसरे के पास चली जाती है। जो व्यक्ति एक दिन राजा होता है वह दूसरे दिन दर-दर का भिखारी बन जाता है। प्रत्येक मनुष्य को धन के इस स्वरूप को समझना चाहिए और समझदार-

1. धनवान् को चाहिए कि वह निर्धनों की, दीन और दुःखियों की, पीड़ियों की सहायता करके उन्हें प्रसन्न करे। बलवानों को चाहिए कि वे निर्बलों, अनाथों और अबलाओं की रक्षा करें।

2. यह कहा या सकता है कि हमें किसी की सहायता करने की क्या आवश्यकता है? वेद इसका बहुत ही सुन्दर उत्तर देता है। वेद कहता है जीवन का मार्ग बहुत विस्तृत है। अतः मनुष्य को दीर्घदृष्टि से काम लेना चाहिए। दुःख, आपत्तियाँ और संकट सभी पर आ सकते हैं। यदि धन और बल के नशे में चूर होकर हमने किसी की सहायता नहीं की, तो यह निश्‍चित है कि हमारी सहायता भी कोई नहीं करेगा। अतः याचक को प्रसन्न करना ही चाहिए। - स्वामी जगदीश्‍वरानन्द सरस्वती (दिव्ययुग- अक्टूबर 2019)

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