विशेष :

परमेश्‍वर सदा सर्वत्र सुलभ है

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ओ3म् स नः पितेव सूनवेऽग्नेसूपायनो भव।
सचस्वा नः स्वस्तये॥ ऋग्वेद 1.1.9॥

शब्दार्थ- अग्ने = हे अग्रणी देव! सूनवे = सन्तान के लिए पिता-इव = पिता की तरह स = सर्वप्रसिद्ध आप त्वं नः = हम सबके लिए सु-उपायनः = सरलता से प्राप्य भव = बनो और नः = हमें सर्वथा, सदा स्वस्तये = कल्याण के पथ पर सचस्व = प्रवृत्त करो।

भावार्थ- हे अंग-अंग में समाये अग्रणी देव ! आप सर्वविद्य हैं। अतः हमारी अपेक्षा आप ही प्रत्येक प्रकार से पूरा जानते हो कि हमारा कल्याण कब, कहाँ, किसमें है?


व्याख्या- हम संसारी जीव हैं। हर समय संसार के भौतिक व्यवहारों में मग्न रहते हैं। इसी रूप में अपने जीवन को जीते हैं और इसी तरह ही जीना चाहते हैं। अतः उसी भावना में भरकर आपसे प्रार्थना करते हैं। हे अग्निदेव! आप ही आगे से आगे हमारी जीवन नैया को चलाने वाले हैं। हम चाहे स्वयं पुत्र होते हुए इस भावना को इतना अनुभव नहीं करते कि हमारे पिता हमारे लिए कितनी तन्मयता, अपनेपन से हमें सुलभ होते हैं और हमारे कल्याण के लिए अहर्निश क्या-क्या करते रहते हैं?

प्राकृतिक व्यवस्था के अनुसार जब कभी कोई स्वयं पिता बन जाता है और अपने लाड़लों के लालन-पालन में व्यस्त होता है, वह अपने आपको अपने बच्चों के लिए कितना सुलभ बना देता है! तब वह अपने आपको भुलाकर तथा अपनी अपेक्षाओं की चिन्ता छोड़कर ,अपने महत्व को ओझल करके सन्तानों की सुविधाओं के लिए ही, अपनों के कल्याण में ही अपने आपको निमग्न कर देता है।

अग्नि की तरह सर्वप्रसिद्ध ! अग्निदेव ! आप ही संसार में सबसे अधिक प्रसिद्ध, मान्य हैं। आप ही प्रत्येक प्राणी के उत्पादक और पालक हैं। अतः आपका प्रत्येक प्राकृतिक कार्य हम सबके पालन-पोषण के लिए ही हो रहा है। एतदर्थ आप इस संसार के कण-कण में समाये हुए हैं। इतना ही नहीं, अपितु आज तो हमारी सुविधा के लिए हृदय में भी विराजमान हैं। अतः आप हमारे हित की दृष्टि से सदा सुलभ रहते हो।

हम चाहे अपनी थकावट को मिटाने के लिए घोडे बेच कर सोना की कहावत की तरह पूर्ण निश्‍चिन्त होकर सो जायें, पर आप तो तब भी जागते रहेते हो। हमारी सुलभता में आप कभी ओझल, दूर नहीं होते। तभी तो अपनी साधना के आधार पर सिद्धजन कह उठते हैं कि तेरी अनुभूति इतनी सुकर, सुखकर है कि गरदन झुकाई और अनुभूति कर ली या हो गई। हम अपने आपमें चाहे मस्त रहें, पर आपकी ओर से दर्शन की सुलभता में कोई बाधा, अड़चन नहीं आती। अतः जैसे एक पिता अपनी सन्तानों के लिए सरलता से प्राप्य होता है और वह सदा-सर्वथा उनकी अच्छाई में जुटा रहता है। अपने बच्चों को भले कार्य करने की ही प्रेरणा देता है। केवल शब्दों से ही नहीं, अपितु हार्दिक भावों से भरकर दिलोजान से पूरा यत्न करता है। ऐसे ही इस भौतिक अनुभूति की तरह हे परमपिता ! आध्यात्मिक साधना से अभौतिक स्तर पर भी हम सक्षम हों।

निःसन्देह इसके लिए सबसे प्रथम अपेक्षा है कि हम अबोध शिशु के सदृश निर्दोष, निश्छल हों। अन्यथा कुछ भी स्पष्ट नहीं हो सकता। स्वच्छ, निर्मल दर्पण में निश्‍चलता, स्थिरता की स्थिति में ही किसी की छवि स्पष्ट होती है। स्थिर, स्वच्छ जल में ही प्रतिबिम्ब प्रत्यक्ष होता है। निर्मल, निश्छल के प्रति ही कोई किसी प्रकार की कृपा वर्षा करता है। कपटी के प्रति धोखा देने की आशंका बनी रहती है।

विशेष- पिवेत सूनबे उपमा वाक्य द्वारा जहाँ सरलता-सरसता से क्रिया का भाव स्पष्ट होता है, वहाँ प्राणी जगत का अपनी परम्परा के प्रति शाश्‍वत स्नेह भी अभिव्यक्त होता है। (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | वेद ज्ञान के आचरण से ही कल्याण | वेद कथा -101 | Explanation of Vedas in Hindi | Ved Katha Pravachan


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