विशेष :

परमेश्‍वर के व्यापक कर्मों को देखा

User Rating: 0 / 5

Star InactiveStar InactiveStar InactiveStar InactiveStar Inactive
 

ओ3म् विष्णोः कर्माणि पश्यत यतो व्रतानि पस्पशे।
इन्द्रस्य युज्यः सखा॥ ऋग्वेद 9.22.19 यजुर्वेद 6.4॥

शब्दार्थ- विष्णोः = व्यापक के कर्माणि = कार्यों को पश्यत = देखो, समझो। यतः = जिसने व्रतानि = प्राकृतिक कर्मों, तज्जन्य नियमों, व्यवस्थाओं को पस्पशे = फैलाया, किया है। और जो कि इन्द्रस्य = इन्द्र (इन्द्रियाँ जिसकी हैं = जीव) का, शरीर के स्वामी का युज्यः = निकटतम, गहरा सखा = समान स्थिति वाला, मित्र है।

व्याख्या- इस संसार में सर्वत्र फैला हुआ एक तत्व व्यवस्था करता हुआ व्यवस्थापक रूप में प्रतीत होता है। क्योंकि उसकी व्यवस्थायें यहाँ-वहाँ एक जैसी ही अनुभव में आती हैं। अतः इन सर्वव्यापक सर्वत्र फैले हुए प्राकृतिक-भौतिक कर्मां को देखा और समझो कि ये अदृश्य हाथों से प्राणियों की जरूरतों को कैसे-कैसे पूर्ण कर रहे हैं। यत्र-तत्र-सर्वत्र एकसा कार्य करते प्राकृतिक पदार्थ यहाँ-वहाँ फैले, समाए अदृश्य विष्णु के ही कर्म हैं। क्योंकि कोई संसारी इनको करने का दावा नहीं करता और न करता दिखाई देता है। ये कर्म ऐसे हैं जो सर्वथा सत्य, यथार्थ, व्यवस्थित, नियमित तथा सुसम्बद्ध हैं और सबके लिए एक से हैं। इनका प्रभाव सभी पर सभी के लिए बिना पक्षपात के एक सा ही होता है। हाँ, भोक्ता व्यक्ति की सहनशक्ति से ही अनुभूति में अन्तर हो जाए तो हो जाए। अतः इसकेा समझकर अनुभव करो कि यतो व्रतानि पस्पशे- व्यापक अपने कर्मों के माध्यम से जगत की व्यवस्था को भी चला रहा है। तभी तो इसका चमकता सूर्य अपने सौर मण्डल के लोक-लोकान्तरों को अपने आकर्षण-विकर्षण-प्रत्याकर्षण से थामें हुए हैं। वही यहाँ-वहाँ उत्पन्न होने वाले अन्न आदि को रस देता और पकाता भी है। तभी तो यह सूर्य केवल अपनी रश्मियों से उषा-उष्मा-ऊर्जा से ही लाभान्वित नहीं करता, अपितु इसकी गति से प्रभाव से काल गणना के आधार तत्त्व वर्ष, ऋतु, मास, दिन आदि रूप में सामने आते हैं। इसमें पृथिवी तथा चन्द्रमा की परिक्रमा विशेष सहयोगी बनता है। इसी प्रकार सूर्य, चन्द्र आदि के प्राकृतिक कर्मों के कारण अनेक व्यवस्थायें इस संसार में चल रही हैं।

बाह्य जगत के सूर्य-चन्द्र के अनुरूप तथा उनके सहयोग से कार्य करने वाले शरीर में विराजमान नेत्र आदि व्यवस्थित हैं। तभी तो ब्रह्माण्ड तथा पिण्ड की व्यवस्थाओं को समझकर दूरदर्शन आदि यन्त्र प्रकाश में आये हैं। इसी समझ के आधार पर ब्रह्माण्ड और पिण्ड का तारतम्य प्रकट हो रहा है। वह प्रभु इतना ही नहीं, अपितु इन्द्रस्य युज्यः सखा- इस संसार का स्रष्टा, व्यवस्थापक, नियामक जहाँ निर्दिष्ट रूप से संसार को चला रहा है, वहाँ वह विष्णु इसके साथ शरीर के राजा इन्द्र का गहरा दोस्त भी है। आँख आदि के लिए होने वाला इन्द्रिय शब्द का प्रयोग इनको वर्तने वाले को इन्द्र सिद्ध करता है। तभी तो कोई कह सकता है कि ये नेत्र आदि इन्द्रियाँ इन्द्र के साधन, औजार कहलाते हैं- इन्द्रियं इन्द्रलिंगम् (पा.अ. 5.2.93)।

ऐसे इन्द्र नामक जीवात्मा का विष्णु नामक प्रभु व्यापक होने से मित्रवत् हृदय देश में भी विराज रहा है। तभी तो उसके साथ दिल में बैठा हुआ अपने सखा के हित को ध्यान में रखकर जब भी किसी भलाई में यह सहयोग करता है, तो वह व्यापक-व्याप्य सम्बन्ध रखने वाला विष्णु जीव को उत्साहित और प्रेरित करता है। आगे से आगे इस परम्परा को बनाये रखने के लिए आशा व उत्साह बनाए रखता है। कोई जब भी किसी को हानि व कष्ट पहुँचाने के लिए सोचता है, स्वार्थ या लोभ के वश में पड़कर दूसरे का नुकसान करने का यत्न करता है। तो प्रभु उसके मन में आशंका, लज्जा, भय, हिचक, झिझक उत्पन्न कर देता है। सामाजिकता का भय पैदा करके पकड़े जाने का डर उभारता है। गहरी दोस्ती का यह कितना प्रत्यक्ष प्रमाण है! और इससे बढकर क्या प्रमाण हो सकता है? अन्य अनेक मन्त्रों में दोनों को सखा कहा गया है। यथा- द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया (ऋग्वेद 1.164.20) विशेष प्रसिद्ध है।

कई बार अनेक व्यक्तियों के मन में विचार होता है कि यह संसार तो अपने आप चल रहा है। संसार को चलाने वाला ईश्‍वर नाम का कोई तत्त्व नहीं है। ऐसों को विचार बिन्दु देते हुए यह मन्त्र कहता है कि हे विचारशीलो ! कभी अपने चारों ओर यहाँ-वहाँ फैले प्राकृतिक कर्मों पर कुछ ‘गहरे पानी पैठकर’ विचार तो करो कि यह अद्भुत कर्म, रूप कैसे अपना रंग दिखा रहा है! इस भाव को ऐसे भी कह सकते हैं कि ईश्‍वर की सत्ता को अनुभव कराते हुए मन्त्र कता है कि कभी उषा काल पर विचार करो कि कैसे रात्रि का अन्धेरा छटकर प्रकार फैल जाता है। कभी प्रीात के ओस कणों को नरम-नरम घास पर चलकर अनुभव करो। सूर्य की रश्मियों को कभी प्रभात में देखो। कैसा दृश्य अनोखे रूप में उपस्थिति हो जाता है। ऐसे ही वर्षा के जल बिन्दुओं के तारतम्य का विचार करो। तारों भरी रात ने कितनी बार कितनों को सोचने के लिए विवश किया है कि यह किस कारीगर की कैसी कारीगरी है? यह कैसी अनूठी व्यवस्था है! (वेद मंथन)

वेद मंथन, लेखक - प्रा. भद्रसेन वेदाचार्य एवं संपादक - आचार्य डॉ. संजय देव (Ved Manthan, Writer- Professor Bhadrasen Vedacharya & Editor - Acharya Dr. Sanjay Dev) Motivational Speech on Vedas in Hindi by Dr. Sanjay Dev | दूसरों के रास्ते से काँटों को हटाना धर्म । वेद कथा - 102 | Explanation of Vedas & Bhagavad Gita


स्वागत योग्य है नागरिकता संशोधन अधिनियम
Support for CAA & NRC

राष्ट्र कभी धर्म निरपेक्ष नहीं हो सकता - 2

मजहब ही सिखाता है आपस में बैर करना

बलात्कारी को जिन्दा जला दो - धर्मशास्त्रों का विधान