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होली का वैज्ञानिक विश्‍लेषण

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हर्षोल्लास का मंगलमय पर्व होली भारत की रस-रंगवन्ती आत्मा का मुक्त लीला पर्व है। ऋतुराज बसन्त के आगमन पर प्रकृति की छटा अवर्णनीय हो जाती है। प्रकृति अपने चारों ओर रंगों की छटाएं बिखेरने लगती है। द्वेष-ईर्ष्या, मानसिक तनाव, वैर-विरोध की मैल होली के रंगों से धुल जाती है। होली के दिनों में कश्मीर से कन्याकुमारी और गुजरात से बंगाल तक सारा देश रंगों की मस्ती में डूब जाता है। नगरों, कस्बों, ग्रामों में रहने वाले लोग ऊँच-नीच का भेदभाव भूलकर जाति-पांति, मत-मजहब की दीवारें तोड़कर आत्मीयता में सराबोर होकर उल्लास में डूबकर मस्ती से नाचते-गाते, गले मिलते, रंगों की पिचकारियों व हाथों से चेहरों पर गुलाल मलते हुए राष्ट्र की भावात्मक एकता का उज्ज्वल उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। जैसे दीपावली तन और मन के अन्धकार से मुक्ति का पर्व माना गया है तो होली को वैर-विरोध और द्वेष-दुष्टता के निराकरण का पवित्र यज्ञ माना गया है।

हमारे देश के प्रत्येक त्यौहार में धार्मिकता व वैज्ञानिकता का पुट मिलता है। जिस प्रकार वर्षा ऋतु के चातुर्मास (चौमासे) के पश्‍चात् घरों की लिपाई-पुताई व नव ऋतु के प्रवेश पर रोगों के प्रतिकारार्थ होम यज्ञ द्वारा वायुमण्डल की शुद्धि का विधान है, इसी प्रकार बसन्त ऋतु में स्वास्थ्य के प्रतिरोधार्थ हवन से वातावरण के संस्कारार्थ, नवागत ग्रीष्मोचित हलके-फुलके श्‍वेत वस्त्रों के बदलने और नई आई आषाढ़ी फसल के यवों (जौओं) से देवयज्ञ का विधान है। संस्कृत में अग्नि में भुने हुए अधपके अन्न को होलक कहते हैं। तिनकों की अग्नि में भूने हुए अधपके शमीधान्य (फली वाले अन्न) ही होलक (होला) होते हैं। होला स्वल्प वात है और मेद (चर्बी) कफ और श्रम (थकान) के दोषों का शमन करता है।
होली का पवित्र पर्व वस्तुतः आनन्द और उल्लास का महोत्सव था। इस आत्मीयता से ओत-प्रोत पर्व पर कुसुमसार (इत्र) आदि सुगन्धित द्रव्यों को परस्पर उपहार के रूप में व्यवहार में लाते थे। पिचकारियों द्वारा एक दूसरे पर गुलाब जल छिड़का जाता था। इससे वस्त्रों का कुछ भी नहीं बिगड़ता था। आज स्वास्थ्य को हानि पहुंचाने वाले रंगों का प्रचलन चल पड़ा है। प्राचीन काल में होली के अवसर पर कई-कई दिन पहले से टेसू के फूल मिट्टी के मटकों में भिगोए जाते थे और उस रंग में थोड़ा चूना भी मिलाया जाता था। टेसू के फूल चूने के साथ मिलकर अपनी लाली छोड़ देते थे। फिर इस रंग को कपड़ों में छानकर बड़े-बड़े कलशों व भगोनों में भरकर पिचकारियों से लोगों पर छिड़का जाता था। यह स्वास्थ्य के लिए लाभकारी माना जाता है। चैत्र मास में प्रायः शीतला रोग (चेचक) का प्रकोप होता है और चेचक से बचने के लिए आयुर्वेद के आचार्यों ने टेसू के फूलों के जल में स्नान करना लाभकारी बताया है। पिचकारी से चलाए गए टेसू के फूलों से बने रंगीन जल से तर वस्त्रों की वजह से चेचक निकलने का भय दूर हो जाता था। पर आज जो रासायनिक रंग घोलकर काम में लाए जाते हैं, इन रंगों में विषाक्त पदार्थों का सम्मिश्रण स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता है। गुलाल का प्रयोग नेत्र रोग के फैलने से बचाव करता है।
होली पर प्रचलित होलिका दहन की कथा वास्तव में प्रतीकात्मक भी है। हिरण्यकश्यप तानाशाही, नास्तिकता व शोषक मनोवृत्ति का परिचायक है, तो धर्मवीर प्रहलाद परम ध्येयनिष्ठ, असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योर्तिगमय व लोकतान्त्रिक मूल्यों का सन्देशवाहक है। अनेक प्रकार की यातनाओं एवं बाधाओं को सहने वाला प्रहलाद अन्ततोगत्वा विजयी होता है। ईश्‍वर के प्रति अटूट आस्था होलिका के वरदान को भी झूठा प्रमाणित कर देती है। झूठ का सम्बल लेने पर होलिका का जलना यह संकेत देता है कि कोई व्यक्ति कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, गलत मार्ग को अपनाने पर अपनी असीम शक्ति खो बैठता है। होलिका दहन में गन्दी वस्तुओं का जलना जहाँ स्वच्छता का अभियान है, वहाँ कुरीतियों-कुप्रथाओं को जला डालने का आह्वान भी है।
होली पर शिष्ट हास-परिहास, स्वस्थ मनोरंजन, साहित्य कला का विभिन्न विधियों से प्रदर्शन करना अपनी सांस्कृतिक विरासत को प्रोत्साहित करना है। इस मंगलमय त्यौहार पर कुछ लोग शराब पीकर भांग आदि के नशे करके, एक दूसरे को गाली-गलौज देकर, महिलाओं से अभद्र व्यवहार करके या अश्‍लील हरकतों से इसकी गरिमा को घटाने का कुप्रयास करते हैं। इस त्यौहार की गौरवमयी परम्परा को कायम रखते हुए होली की पवित्रता व गरिमा का ध्यान रखना आवश्यक है। होली प्रेम तथा मंगल मिलन का त्यौहार है। सुगन्धित फूलों व अच्छे फीके रंगों द्वारा इसे अपनत्व एवं सहृदयतापूर्वक मनाना चाहिए।

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