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प्राचीन भारत में होलिकोत्सव

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holi 000भारत एक उत्सवप्रिय देश है। इसीलिए अनादिकाल से प्रत्येक ऋतु में एक न एक उत्सव मनाने की परम्परा यहाँ चली आ रही है, किन्तु वसन्त ऋतु में तो उत्सवों का चरमोत्कर्ष मिलता है। समाज के स्वस्थ्य जीवन के लिए व्यक्ति की दिनचर्या में विनोद, हास और उल्लास के लिए भी कुछ क्षण आवश्यक हैं। एक वैदिक मन्त्र है-

सूनृतावन्तः सुभगा इरावन्तो हसामुदाः।
अतृष्या अक्षुध्या गृहा मास्मद् बिभीतन॥ (अथर्ववेद 7.60.6)
जिन घरों में रहने वाले परस्पर मधुर और शिष्ट संभाषण करते हैं, जिनमें सब तरह का सौभाग्य निवास करता है, जो प्रीति-भोजों से संयुक्त हैं, सभी हास और उल्लासमय जीवन-यापन करते हैं एवं जहाँ न कोई भूखा है न प्यासा, उन घरों में कहीं से भय का संचार न हो।
हमारी संस्कृति मे ‘होली’ का उत्सव तामसिक वृत्तियों के मुखर होने हेतु नियत किया गया है। इस दिन हमारी मर्यादित प्रकृति भी उन्मुक्त हो जाती है। आमोद-प्रमोद निर्बन्ध हो जाते हैं। उत्सव की इस सम्मोहनी शक्ति को हमारे द्रष्टा महर्षियों ने समझा था। उन्होंने यज्ञों में वसन्त को आज्य कहकर घोषित किया था-
यत्पुरुषेण हविषा देवा यज्ञमतन्वत।
वसन्तो अस्यासीदाज्यं ग्रीष्मः इध्मः शरद्धवि॥ (ऋग्वेद 10.90.6)
इन्हीं महर्षियों ने वसन्त माधुरी की मधुमयता से आनन्द विभोर हो मधुमास से अपने नववर्ष का प्रारम्भ करते हुए परमेश्‍वर से प्रार्थना के रूप में कहा था-
मधुवाता ऋतायते मधु क्षरन्ति सिन्धवः।
माध्वीर्न सन्त्वोषधी मधुनक्तमुतोषसो मधुमत्पार्थिवं रजः।
मधुद्यौरस्तु नः पिता मधुमान्नो वनस्पति
मधुमा अस्तसूर्यः माध्वीर्गावो भवन्तु नः॥ (यजुर्वेद)
हमारे लिए वायु मधु बनकर बहे, नदियाँ मधु-क्षरण करें, औषधियाँ मधुमयी हों। अर्थात् भूमि का कण-कण, आकाश, वनस्पतियाँ, सूर्य और हमारी गाएं सभी मधुमय हों।
होली या वसन्तोत्सव का जो वर्तमान स्वरूप दिखाई पड़ता है वह हजारों वर्ष पुराना है। भारतवर्ष के पूर्व भाग में जो अनेक प्रकार की उद्यान-क्रीड़ाएं प्राचीनकाल में प्रचलित थी, वे इसी होली पर्व का ही एक अंग थीं। पाणिनि का ‘प्राचांक्रीणायां’ (6,2,72) सूत्र इनका परिचायक है। ‘वात्स्यायन’ ने उन्हें देश परम्परागत क्रीड़ाएं कहा है।
फाल्गुन शुक्ल अष्टमी से पूर्णिमा तक आठ दिन होलिकाष्टक नामक पर्व मनाया जाता था। होलिकोत्सव का वर्णन भविष्योत्तर पुराण में इस प्रकार किया गया है-
अयं पंचदशी शुक्ला फाल्गुणस्य नाक्शाधित।
शीतकालान्त सम्प्राप्तो प्रातर्मधु भविष्यति॥
नाना रंगमयैर्वस्त्रैः चन्दना गुरु मिश्रितैः।
अबीरं च गुलालं च मुखे ताम्बूलभक्षणम्॥
जल्पन्तु स्वेच्छया सर्वे निशंका यस्य यन्मतम्।
तेन शब्देन स पापा होमेन च निराकृता॥
राजन्! शीतकाल का अन्त है। इस फाल्गुनी पूर्णिमा के पश्‍चात् प्रातः मुधमास होगा। सभी को आप अभय दीजिए। सभी रंग बिरंगे वस्त्र पहनकर चन्दन, अबीर और गुलाल लगाकर पान चबाते हुए एक-दूसरे पर रंग डालने के लिए पिचकारियाँ लेकर निकलें। जिनके मन में जो आए सो कहें। ऐसे शब्दों से तथा हवन करने से वह पापिनी (होलिका) नष्ट हो जाती है।
चैत्र कृष्णा प्रतिपदा को सूर्योदय के पश्‍चात् नित्य नियम से निवृत्त हो तर्पणादि कर होलिका की विभूति को धारण किया जाता था। विभूति स्वयं लगाकर एक दूसरे को लगाते-लगाते विनोेद में एक-दूसरे पर उछालना आरम्भ हुआ होगा। बहुत बाद में धूल, गोबर, कीचड़ आदि उछालने की प्रथा चली होगी। इसी दिन श्‍वपच को गले लगाने का विधान भी था।
युधिष्टिर के ‘राजसूय’ यज्ञ की समाप्ति पर यज्ञान्त स्नान का श्रीमद्भागवत (10-75-14.15) में वर्णन इस प्रकार मिलता है-
स्वलंकृता नरानार्यो वस्त्राभूषणाम्बरै।
विलिम्पन्त्यो शिषिचन्त्यो विजहुः विविधै रसैः।
तैल गोरस गन्धादि हरिद्वासान्द्रकुंकुमै।
युभिर्लिप्ताः प्रतिम्वन्त्यो विहुः वारियोषिताः।
ता देवरानुत सखीन्सिषिच्छर्दतीभिः।
गन्ध, माला, भूषण तथा वस्त्रों से अलंकृत पुरुष और स्त्रियाँ नदी में अवभृथ स्नान करने के लिए गईं। वहाँ युवतियाँ तेल, गोरस, सुगन्धित जल, हल्दी और कुंकुम आदि से एक-दूसरे को रंगने लगी। घत्तियी (चर्मयन्त्र) से अपने देवरों और प्रियजनों को भिगो रही थीं। ये घत्तियाँ ही आधुनिक पिचकारियों की आदिरूप थीं। महाकवि माघ (750 ई.) ने पिचकारी का वर्णन किया है। शृंगानि द्रुत कनकोज्वलानि गन्धाः, कौसुम्भपृथु कुचकुम्भ सार्गवासः माद्वीक प्रियतम सान्निधानमासन्नारीणामिति जल केलि साधनानि। तप्त स्वर्ण के समान उज्जवल केशरिया रंग का विशाल स्नानाच्छादन, वस्त्र प्रक्षालन तथा प्रियजनों का सान्निध्य नारियोें के जल क्रीड़ा के साधन थे।
होलिका पर्व अपने मूल रूप में वसन्तोत्सव और नई फसल का पर्व है। होली वस्तुतः किसानोें के परिश्रम के फल का नया अन्न पैदा होने का त्यौहार है। नया अन्न सर्वप्रथम देवताओं को अर्पित करने की परम्परा भारत में प्राचीन काल से ही रही है, गीता में कहा है- तैर्दत्तानप्रदायेभ्दो यो भुंक्ते स्तेन एव सः। अर्थात् देवताओं को चढ़ाए बिना जो स्वयं खा लेता है वह चोर है। इसलिए जब-जब नया अन्न पैदा होता था तब-तब एक इष्टि (यज्ञ) होता था। श्रौतसूत्रों में इस कृत्य को आग्रायण इष्टि कहा गया है। मनु ने इसे नवशस्येष्टि कहा है। वैदिक काल में ऐसा ही एक उत्सव था। इन्द्रमह या इन्द्र ध्वज का उत्सव। तैत्तिरीय ब्राह्मण में इन्द्र को शुनासिर कहा गया है। यानि इन्द्र कृषि कर्म का भी देवता था। संस्कृत साहित्य में वसन्त और वसंतोत्सवों का व्यापक वर्णन मिलता है।
प्राचीनकाल से आज तक भारत में होली को आनन्द के महोत्सव के रूप में मनाया जाता रहा है। सामाजिक रूप से इसे जनमानस की ऊंच-नीच की दीवार को तोड़ने वाला पर्व माना जाता रहा है। कृषक इसे लहलहाती फसल काटने का तथा आनन्द-उल्लास का और भगवदीयजन इसे बुराई के ऊपर भलाई की विजय का पर्व मानते हैं। होली पर्व का मुख्य सन्देश है बुराइयों की, कटुताओं की, वैमनस्यता की, दुर्भावों की होली जलाई जाये, इनका दहन किया जाये और प्रेम का, सद्भाव का, सदाचार का रंग सब पर बरसाया जाए। - डॉ. हरिसिंह पाल

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